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साधु-संतों को समाज के प्रति उनके दायीत्व पर मनन करना होगा!

आखीरकार 25 साल से ज्यादा की जिद्दोजहद और संघर्ष के बाद जैन समुदाय को अल्पसंख्यक का संवैधानिक दर्जा मिल ही गया। जैन समुदाय को अल्पसंख्यक का दर्जा मिलने से इस समुदाय के मध्यम, निम्र मध्यम व गरीब तबकों को आर्थिक सम्बलता मिलने का रास्ता तो साफ हो ही गया है, वहीं विलुप्ति के कगार पर खड़े इस समुदाय के सांस्कृतिक इतिहास को अक्षुण्ण रखने के लिये रास्ते भी खुल गये हैं। हमने श्वेताम्बर जैन समुदाय की शैक्षणिक और सामाजिक संस्थाओं पर नाग की तरह कुण्डली मारे और फन ताने कुछ पजीपतियों, सरमायेदारों और उनके भ्रष्ट दुमछल्लों से जैन समुदायय को अल्पसंख्यक का संवैधानिक दर्जा मिलने के बारे में उनकी राय जानने की कोशिश की तो वे बुरी तरह भन्ना गये। एक सेठिये जी फरमाने लगे कि हम तो यार हिन्दू ही हैं, जैन तो हमारी जाति है, लेकिन धर्म तो हमारा हिन्दू है। क्या मिलेगा अल्पसंख्यक होने से? हमने पलट सवाल किया कि जब हिन्दू हो ही तो अपनी बेटी का ब्याह हिन्दू से क्यों नहीं करते? वैसे भी जैन समुदाय में प्रति सौ पुरूषों के अनुपात में 86 महिलायें हैं। हर सौ लड़कों में से 15 लड़के कुंआरे रह जाते हैं। आप लोग उनके लिये हिन्दु लड़कियां तलाशो और कराओ उनके विवाह! समाज में हजारों की तादाद में लड़कियों को गृहस्थ बसाने से वंचित कर दीक्षित कर साध्वियां बना दी जाती है, जबकि इनका समाज की सांस्कृतिक-ऐतिहासिक उन्नति में कोई योगदान होता ही नहीं है।
पिछले दिनों हमारे पास जोधपुर स्थित चंद्रप्रभ ध्यान निलायम संबोधि धाम से वहां के महामंत्री का एक ई-मेल आया था। जिसमें बताया गया है कि 'शांतिप्रिय सागर जी हुए डॉक्टरेटÓ! जिस विषय पर उन्होंने शोध किया और अपना शोध पत्र लिखा वह शोध समाज के उत्थान में क्या योगदान करेगा यह तो मुनि शांतिप्रिय सागर ही सही तरीके से स्पष्ट करेंगे। लेकिन हम इनसे और इनके गुरूजनों मुनि चंद्रप्रभ सागर और मुनि ललितप्रभ सागर से एक सीधा सवाल करना चाहेंगे कि क्या उनके पास जैन संस्कृति के इतिहास पर शोध करने के लिये फुर्सत नहीं है?
मुनि ललितप्रभ सागर के सम्बोधि धाम में पिछले दिनों मनाये गये 49 वें जन्म दिन पर मुनि चंद्रप्रभ सागर द्वारा कहे गये कुछ शब्दों का हम यहां उल्लेख कर रहे हैं ''इस अवसर पर संत चंद्रप्रभ महाराज ने कहा कि संत ललितप्रभ युग-पुरूष, कर्मयोगी, शांत-मनीषी और सामाजिक समरसता के सूत्रधार संत हैं। ये मेरे सगे छोटे भाई हैं। हमने एक और जहां माता-पिता की सेवा के लिए सन्यास लेकर श्रवणकुमार का धर्म निभाया वहीं दूसरी ओर राम-लक्ष्मण की तरह भ्रातृत्व प्रेम को जीकर रामायण को पुर्नजीवित किया। हमारे लिए समाज बाद में है, मां-बाप पहले है। संत कितना ही बड़ा क्यों न हो, पर वह मां-बाप से कभी बड़ा नहीं हो सकता। जो बेटे मां-बाप की सेवा करते हैं वे सपूत हैं बाकी सब क्या हैं ये आप स्वयं ही निर्णय करें। इम दोनों भाइयों ने अपने बीच कभी स्वार्थ और इंगो को आने नहीं दिया इसीलिए आज भी दूरियां हमरे दूर हैं। अगर मेरा अगला जन्म हो तो मुझे भाई के रूप में सदा ललितप्रभ ही मिले। संत ललितप्रभ ने पंथ-परम्परा की दूरियों को हटाकर सबको इंसानियत का पाठ पढ़ाया है।" अब हमारे इन संतों से यह सवाल पूछ ही लिया जाना चाहिये कि आखीर उन्होंने दीक्षा क्यों ली? जैन संस्कृति में सन्यास लेने के लिये कुछ निर्देशों की पालना की जाना अनिवार्य है। साथ ही सन्यास लेने वाले व्यक्ति को समाज के प्रति दायीत्वों का निर्वहन करना भी अनिवार्य है। सन्यास लेने के बाद उन्हें पारिवारिक एवं सांसारिक कर्मकाण्डों का स्पष्ट रूपसे त्याग करना भी आवश्यक है। सन्यास लेने के बाद सन्यासी समाज का दायीत्व हो जाता है और समाज संस्कृति के उत्थान की जुम्मेदारी सन्यासी की होती है। क्या मुनि ललितप्रभ सागर और मुनि चंद्रप्रभ सागर जैन संस्कृति के ग्रंथों में उल्लेखित तरीके से एक जैन मुनि का दायीत्व निभा रहे हैं? अगर हां! तो कैसे और अगर ना! तो क्यों? देंगे स्पष्ट जवाब हमारे प्रश्र का!
जैन समुदाय को अल्पसंख्यक का संवैधानिक दर्जा तो अब मिल ही गया। इस सम्बन्ध में मुनि द्वय के सवालों और जिज्ञासाओं का जवाब भी हम ने दिया था अब मुनि द्वय अपने परिवार, अपने आपसी सम्बन्धों पर लिखने-बोलने पर विराम लगायें और समाज के प्रति एक जैन सन्यासी के रूप में कर्तव्य निर्वहन के बारे में मनन् करें।

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