नई दिल्ली/जयपुर (ओएनएस) उत्तर प्रदेश के उन्नाव से लगभग 20 किलोमीटर दूर डोडिया खेड़ा गांव के स्वर्गीय राव राजा रामबक्क्ष के जिस किले में मंदिर के पास एक हजार टन सोना होने की उम्मीद की जा रही है अगर वहां इतनी तादाद में सोना पाया जाता है तो जैन समुदाय के सांस्कृतिक इतिहास की सच्चाइयां परत दर परत खुलती ही चली जायेंगी!
उत्तर प्रदेश के उन्नाव से 20 किलोमीटर दूर डोडिया खेड़ा गांव के जिस किले और मंदिर के बीच की जमीन के नीचे सोना होने के संकेत मिलने के चलते खुदाई के लिये भारतीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण विभाग (जीएसआई) ने चिन्हित किया है उसके पुरातत्व महत्व के बारे में पड़ताल करने की बात किसी के जहन में आज तक नहीं आई थी। दरअसल अगर डोडिया खेड़ा गांव के एक हजार टन सोना मिलने की बात सच निकलती है तो यह उस ही सोने के खजाने का हिस्सा है, जिसे जैन संस्कृति के महान् योद्धा पाश्र्व वीरभट्टारक बेबीलोन के शक्तिशाली सम्राट नबुकिडिनजर को परास्त कर उसकी पुत्री हर्यक (हरिण्य अर्थात स्वर्णमयी) से विवाह कर ईसा पूर्व 570 में लाये थे। बेबीलोन वर्तमान ईराक के यूफ्रिटिस और टिग्रिस नदियों के मध्यवर्ती इलाके के तत्कालीन शाकद्वीप क्षेत्र में स्थित रहा है और यह अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ऐतिहासिक महत्व का क्षेत्र है।
जैन संस्कृति का इतिहास बताता है कि ईसा पूर्व लगभग 578 (लगभग 2578 वर्ष पूर्व) मगध के शासनाध्यक्ष अश्वसेन और उन पुत्र पाश्र्व वीरभट्टारक के नेतृत्व में मगध के क्षत्रपों की ताकतवर सेना ने बेबीलोन पर (वर्तमान ईरान) के रास्ते हमला किया था। मगध की सेना और बेबीलोन के सम्राट अबुकिडिनजर की सेनाओं में चार साल तक भयंकर युद्ध चला और इसमें राजा अश्वसेन मारे गये तथा बेबीलोन के शासक अबुकिडिनजर को करारी शिकस्त मिली! पराजित बेबीलोन के शासक अबुकिडिनजर से युद्ध के दौरान अश्वसेन के युद्ध में वीर गति प्राप्त होने के बाद मगध के सम्राट बने पाश्र्व वीरभट्टारक की आधीनता स्वीकार कर ली और अपनी पुत्री हर्यक (हरिण्य अर्थात स्वर्णमयी) जिसे जैन संस्कृति में प्रभा सुन्दरी व प्रभावती के नाम से जाना गया है, का विवाह पाश्र्व वीरभट्टारक से कर दिया। पाश्र्ववीर भट्टारक अपनी पत्नी हर्यक (प्रभा सुन्दरी-प्रभावती) और हजारों टन सोना व अन्य मूल्यवान वस्तु भण्डार लेकर ईसापूर्व 574 में वापस मगध (भारत) लौटे। जहां उन्हें तीर्थंकर (विराट चक्रवर्ती शासनाध्यक्ष) की पदवी से अलंकरित किया गया।
पाश्र्व वीरभट्टारक द्वारा युद्ध में जीती गई बेबीलोन, ईरान, सीरिया, मिश्र (अफ्रीका) क्षेत्रों से प्राप्त स्वर्ण, स्वर्ण प्रतिमायें और बहुमूल्य वस्तुओं के भंडार को मगध राजकोष में शामिल कर लिया गया। इस अकूत स्वर्ण भण्डार को पांच गोपनीय स्थानों पर रखा गया था और उन स्थानों का नाम सोन भण्डार रखा गया। जैन इतिहास और जैन श्रुति में इन सोन भण्डारों का उल्लेख कई स्थानों पर आता है।
ईसा पूर्व 543 में तीर्थंकर पाश्र्व वीरभट्टारक का 70 वर्ष की आयु में देहान्त हो गया। उसके बाद उनकी पत्नी हर्यक (प्रभा सुन्दरी-प्रभावती) के सानिध्य में पाश्र्व वीरभट्टारक के पुत्र बिम्बीसार को 15 साल की अल्प आयु में मगध की राजगद्दी पर आसीन किया गया।
अगर भारतीय इतिहासकारों की माने तो यहीं से हर्यक वंश का प्रारम्भ हुआ है। प्राचीन भारत के इतिहास का गहराई से अध्ययन किय जाये तो उसमें उल्लेखित हर्यक वंश के लिये प्रसिद्ध है कि इस वंश के शासक पितृहंता (पिता को अपदस्थ कर या मार कर) शासक होते थे। आज भी स्नातक एवं अधिस्नातक स्तर के पाठ्यक्रम के प्राचीन भारत के इतिहास खण्ड में हर्यक वंश का उल्लेख आता है।
उत्तर प्रदेश के उन्नाव से लगभग 20 किलोमीटर दूर स्थित डोडिया खेड़ा गांव आज लगभग एक सौ परिवारों की बस्ती है और यहां के लोगों को अपने प्राचीन इतिहास के बारे में कोई जानकारी नहीं है।
जिस साधू शोभन सरकार को खजाने के बारे में सपना आया है, उसके मुताबिक यहां सिर्फ एक हजार टन सोना ही नहीं है, बल्कि इस कथित स्वर्ण भंडार के पास ही पांच हजार टन सोना ओर भी हो सकता है।
इससे साफ जाहिर होता है कि अगर इतनी मात्रा में स्वर्ण, स्वर्ण आभूषण, स्वर्ण मूर्तियां निकलती है तो ये खजाना ईसा पूर्व 570 (2578 वर्ष पूर्व) का पाश्र्व वीरभट्टारक के शासनकाल का बेबीलोन से लाकर मगध राज्य के राजकोष में जमा किये गये खजाने का एक हिस्सा है।
अगर हकीकत में उन्नाव के पास डोडिया खेड़ा गांव के बाहर गंगानदी के तट पर स्थित इस किले के प्रांगण से यह खजाना निकलता है, तो यह राष्ट्रीय पुराधरोहर होने के साथ-साथ जैन संस्कृति के अनुयाइयों की सम्पत्ति होगी, जिन्होंने बेबीलोन (ईरान), ईरान, सीरिया, मिश्र (अफ्रीका) में जाकर प्रचण्ड संघर्ष कर यह खजाना अर्जित कर भारत लाये ओर इसे सहेजा!
डोडिया गांव के पास गंगानदी के किनाने स्थित इस किले के प्रांगण से खजाना निकलता है तो यह जैन संस्कृति के इतिहास के परत-दर-परत खोलेगा और इसके बाद पाश्र्व वीरभट्टारक से चलते हुए नेमीनाथ, मल्लिकानाथ होते हुए हमारे आदिपुरूष ऋषभदेव तक के जिन संस्कृति के इतिहास को उजागर करेगा।
दु:खद स्थिति यह है कि जैन एकता का पाखण्ड करने वालों, जैन संस्कृति पर शोध के लिये युनिवर्सिटी खोलने की पाखण्डपूर्ण योजना बनाने वालों को जिन संस्कृति के इतिहास का ककहरा भी मालूम नहीं है और वे इस मुद्दे पर चुप हैं।
उत्तर प्रदेश के उन्नाव से 20 किलोमीटर दूर डोडिया खेड़ा गांव के जिस किले और मंदिर के बीच की जमीन के नीचे सोना होने के संकेत मिलने के चलते खुदाई के लिये भारतीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण विभाग (जीएसआई) ने चिन्हित किया है उसके पुरातत्व महत्व के बारे में पड़ताल करने की बात किसी के जहन में आज तक नहीं आई थी। दरअसल अगर डोडिया खेड़ा गांव के एक हजार टन सोना मिलने की बात सच निकलती है तो यह उस ही सोने के खजाने का हिस्सा है, जिसे जैन संस्कृति के महान् योद्धा पाश्र्व वीरभट्टारक बेबीलोन के शक्तिशाली सम्राट नबुकिडिनजर को परास्त कर उसकी पुत्री हर्यक (हरिण्य अर्थात स्वर्णमयी) से विवाह कर ईसा पूर्व 570 में लाये थे। बेबीलोन वर्तमान ईराक के यूफ्रिटिस और टिग्रिस नदियों के मध्यवर्ती इलाके के तत्कालीन शाकद्वीप क्षेत्र में स्थित रहा है और यह अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ऐतिहासिक महत्व का क्षेत्र है।
जैन संस्कृति का इतिहास बताता है कि ईसा पूर्व लगभग 578 (लगभग 2578 वर्ष पूर्व) मगध के शासनाध्यक्ष अश्वसेन और उन पुत्र पाश्र्व वीरभट्टारक के नेतृत्व में मगध के क्षत्रपों की ताकतवर सेना ने बेबीलोन पर (वर्तमान ईरान) के रास्ते हमला किया था। मगध की सेना और बेबीलोन के सम्राट अबुकिडिनजर की सेनाओं में चार साल तक भयंकर युद्ध चला और इसमें राजा अश्वसेन मारे गये तथा बेबीलोन के शासक अबुकिडिनजर को करारी शिकस्त मिली! पराजित बेबीलोन के शासक अबुकिडिनजर से युद्ध के दौरान अश्वसेन के युद्ध में वीर गति प्राप्त होने के बाद मगध के सम्राट बने पाश्र्व वीरभट्टारक की आधीनता स्वीकार कर ली और अपनी पुत्री हर्यक (हरिण्य अर्थात स्वर्णमयी) जिसे जैन संस्कृति में प्रभा सुन्दरी व प्रभावती के नाम से जाना गया है, का विवाह पाश्र्व वीरभट्टारक से कर दिया। पाश्र्ववीर भट्टारक अपनी पत्नी हर्यक (प्रभा सुन्दरी-प्रभावती) और हजारों टन सोना व अन्य मूल्यवान वस्तु भण्डार लेकर ईसापूर्व 574 में वापस मगध (भारत) लौटे। जहां उन्हें तीर्थंकर (विराट चक्रवर्ती शासनाध्यक्ष) की पदवी से अलंकरित किया गया।
पाश्र्व वीरभट्टारक द्वारा युद्ध में जीती गई बेबीलोन, ईरान, सीरिया, मिश्र (अफ्रीका) क्षेत्रों से प्राप्त स्वर्ण, स्वर्ण प्रतिमायें और बहुमूल्य वस्तुओं के भंडार को मगध राजकोष में शामिल कर लिया गया। इस अकूत स्वर्ण भण्डार को पांच गोपनीय स्थानों पर रखा गया था और उन स्थानों का नाम सोन भण्डार रखा गया। जैन इतिहास और जैन श्रुति में इन सोन भण्डारों का उल्लेख कई स्थानों पर आता है।
ईसा पूर्व 543 में तीर्थंकर पाश्र्व वीरभट्टारक का 70 वर्ष की आयु में देहान्त हो गया। उसके बाद उनकी पत्नी हर्यक (प्रभा सुन्दरी-प्रभावती) के सानिध्य में पाश्र्व वीरभट्टारक के पुत्र बिम्बीसार को 15 साल की अल्प आयु में मगध की राजगद्दी पर आसीन किया गया।
अगर भारतीय इतिहासकारों की माने तो यहीं से हर्यक वंश का प्रारम्भ हुआ है। प्राचीन भारत के इतिहास का गहराई से अध्ययन किय जाये तो उसमें उल्लेखित हर्यक वंश के लिये प्रसिद्ध है कि इस वंश के शासक पितृहंता (पिता को अपदस्थ कर या मार कर) शासक होते थे। आज भी स्नातक एवं अधिस्नातक स्तर के पाठ्यक्रम के प्राचीन भारत के इतिहास खण्ड में हर्यक वंश का उल्लेख आता है।
उत्तर प्रदेश के उन्नाव से लगभग 20 किलोमीटर दूर स्थित डोडिया खेड़ा गांव आज लगभग एक सौ परिवारों की बस्ती है और यहां के लोगों को अपने प्राचीन इतिहास के बारे में कोई जानकारी नहीं है।
जिस साधू शोभन सरकार को खजाने के बारे में सपना आया है, उसके मुताबिक यहां सिर्फ एक हजार टन सोना ही नहीं है, बल्कि इस कथित स्वर्ण भंडार के पास ही पांच हजार टन सोना ओर भी हो सकता है।
इससे साफ जाहिर होता है कि अगर इतनी मात्रा में स्वर्ण, स्वर्ण आभूषण, स्वर्ण मूर्तियां निकलती है तो ये खजाना ईसा पूर्व 570 (2578 वर्ष पूर्व) का पाश्र्व वीरभट्टारक के शासनकाल का बेबीलोन से लाकर मगध राज्य के राजकोष में जमा किये गये खजाने का एक हिस्सा है।
अगर हकीकत में उन्नाव के पास डोडिया खेड़ा गांव के बाहर गंगानदी के तट पर स्थित इस किले के प्रांगण से यह खजाना निकलता है, तो यह राष्ट्रीय पुराधरोहर होने के साथ-साथ जैन संस्कृति के अनुयाइयों की सम्पत्ति होगी, जिन्होंने बेबीलोन (ईरान), ईरान, सीरिया, मिश्र (अफ्रीका) में जाकर प्रचण्ड संघर्ष कर यह खजाना अर्जित कर भारत लाये ओर इसे सहेजा!
डोडिया गांव के पास गंगानदी के किनाने स्थित इस किले के प्रांगण से खजाना निकलता है तो यह जैन संस्कृति के इतिहास के परत-दर-परत खोलेगा और इसके बाद पाश्र्व वीरभट्टारक से चलते हुए नेमीनाथ, मल्लिकानाथ होते हुए हमारे आदिपुरूष ऋषभदेव तक के जिन संस्कृति के इतिहास को उजागर करेगा।
दु:खद स्थिति यह है कि जैन एकता का पाखण्ड करने वालों, जैन संस्कृति पर शोध के लिये युनिवर्सिटी खोलने की पाखण्डपूर्ण योजना बनाने वालों को जिन संस्कृति के इतिहास का ककहरा भी मालूम नहीं है और वे इस मुद्दे पर चुप हैं।





